
आस्था का सैलाब है या मौत का..
– संध्या सिंह
हम मानो Squid game के किसी खेल का हिस्सा हो गए हैं, पड़ोसी मर जाए, दोस्त मर जाए, पत्नी मर जाए, बच्चा मर जाए, सामने सामने लोग मर जाएँ कोई असर नहीं. एक अंधी रेस का हिस्सा हैं जिसमें भागना ही भागना है, big boss का आदेश है कि ये खेल बहुत महत्वपूर्ण है लोगों के लिये , उनकी जान से भी ज़्यादा , क्या पता वे बच जाएँ बस पड़ोसी ही मर जाए.

इस खेल से बिग बॉस की प्रतिष्ठा बंधी है, उसका साम्राज्य बंधा है, उसका धंधा बंधा है, वो मना नही करेगा कर ही नही सकता, वो बुलाएगा, बुलाता रहेगा, विज्ञापन करके, धार्मिक आदेश पारित करके, यह कहकर कि आपने खेल में हिस्सा नही लिया तो सच्चे हिंदू नही हैं, कि 144 साल में एक बार का अवसर है और आप कुछ बहुत बड़ा Miss out कर रहे हैं. बुलाना उसका काम है, वो नही कह रहा कि मर जाओगे, कि हमारे खेल की शर्त ही मौत है, मगर ये जान कर भी आप वहाँ जा रहे हैं तो जिम्मेदारी आपकी है , घर से जबरन हाथ पकड़कर कोई थोड़े ही निकाल रहा है.
हम रोज़ ख़बर देखते हैं आज इतने मर गए कल उतने, फिर सोच लेते हैं कि जनसंख्या ही इतनी है, इसमें कुछ प्रतिशत मर भी जाए तो पीछे बचे लोगों को फ़ायदा ही है, कम resources share करने पड़ेंगे, सारी मारा मारी ही resources की है, जितने मरें उतने ठीक.
हम खेल देखने वाले vip हैं, हमें vip सुविधा प्राप्त है, आम जनता की तरह कीड़े मकोड़ों का जीवन नही जी रहे , जीवन जीने का सच्चा अधिकार हमें ही प्राप्त है.
इसलिये भीतर से हमारी इच्छा यही है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग खेल में हिस्सा लें और निबट जाएँ , ऊपर से हम कंधे उचका कर कहते हैं लोग मूर्ख हैं तो ये उनकी दिक़्क़त है.
हम अजीब संवेदनहीन धार्मिक सामूहिक पागलपन के दौर से गुज़र रहे हैं जहाँ धर्म हर चीज़ से बड़ा हो चुका है , रोटी से, रोज़गार से , यहाँ तक कि लोगों की जान से . इसीलिये अब संगठित धर्म के concept से ही दिक़्क़त होने लगी है, जिस तरह धर्म टूल बनकर लोगों को जॉम्बी बनाता है , कुछ और नहीं.
Kanupriya …ने कितना सही लिखा है जनता को Squid game खेलाया जा रहा है… जनता खुशी खुशी खेल रही है… दिमाग़ में ताला मारकर….. होड़ मची है…कोई पीछे नहीं रहना चाहता या तो पुण्य मिलेगा या मौत….