
कल एक शादी के भोज में गया था। लोग खाने पर टूटे पड़े थे। खाने में बहुत कुछ था—गोलगप्पा से लेकर फुल डिनर तक।
एक आदमी कितना खा सकता है? कितना पचा सकता है? खा-खा कर बेढब हुए लोग रुक ही नहीं रहे थे। क्योंकि खाने में भीड़ थी, लोग एक बार में ही खूब सारी चीज़ प्लेट में भर ले रहे थे। इतना कि खा ही नहीं सकते थे।
फिर?
फिर मुझे अपना ही आंखों देखा याद आ गया…

उस रात मैं पत्नी के साथ गुड़गांव के क्राउन पलाजा होटल में रुका था। सुबह दस बजे मैं नाश्ता करने गया। क्योंकि नाश्ते का समय साढ़े दस बजे तक ही होता है, इसलिए होटल वालों ने बताया कि जिसे जो कुछ लेना है, वह साढ़े दस बजे तक ले ले। इसके बाद बुफे बंद कर दिया जाएगा।
कोई भी आदमी नाश्ता में क्या और कितना खा सकता है? लेकिन क्योंकि नाश्ताबंदी का फरमान आ चुका था, इसलिए मैंने देखा कि लोग फटाफट अपनी कुर्सी से उठे और कोई पूरी प्लेट फल भरकर ला रहा है, कोई चार ऑमलेट का ऑर्डर कर रहा है। कोई इडली, डोसा उठा लाया तो एक आदमी दो-तीन गिलास जूस उठा लाया। कोई बहुत से टोस्ट प्लेट में भर लाया और साथ में शहद, मक्खन और सरसों की सॉस भी।
वैसे भी मुझे लगता है कि चाहे जितनी अच्छी चीज़ भी खाने की हो, यह कल भी मिलेगी, इसलिए आदमी को इतना नहीं खाना चाहिए कि वह कल खाने के योग्य ही न रहे।
एक-दो मम्मियां अपने बच्चों के मुंह में खाना ठूंस रही थी। कह रही थीं कि पूरा खा लो, थोड़ी देर में रेस्त्रां बंद हो जाएगा।
जो लोग होटल में ठहरते हैं, आमतौर पर उनके लिए नाश्ता मुफ्त होता है। मतलब होटल के किराए में सुबह का नाश्ता शामिल होता है। मैंने बहुत बार बहुत से लोगों को देखा है कि वे कोशिश करते हैं कि सुबह देर से नाश्ता करने पहुंचें और थोड़ा अधिक खा लें, ताकि दोपहर के खाने का काम भी इसी से चल जाए। कई लोग इसलिए भी अधिक खा लेते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि मुफ्त है, तो अधिक ले लेने में कोई बुराई नहीं।
कई लोग तो जानते हैं कि वे इतना नहीं खा सकते, लेकिन वे सिर्फ इसलिए जुटा लेते हैं कि कहीं कम न पड़ जाए।
दरअसल, हर व्यक्ति अपनी खुराक पहचानता है। वह जानता है कि वह इतना ही खा सकता है। पर वह लोभ में फंसकर ज़रूरत से अधिक जुटा लेता है।
खैर, साढ़े दस बज गए थे। रेस्त्रां बंद हो चुका था। लोग बैठे थे। टेबल पर खूब सारी चीजें उन्होंने जमा कर ली थीं।
लेकिन अब उनसे खाया नहीं जा रहा था। कोई भला दो-तीन गिलास जूस कैसे पी सकता है? ऊपर से चार ऑमलेट। बहुत सारे टोस्ट। कई बच्चे माँ से झगड़ रहे थे कि उन्हें अब नहीं खाना। माताएँ भी खाकर और खिला कर थक चुकी थी और अंत में, एक-एक कर सभी लोग टेबल पर जमा नाश्ता छोड़कर धीरे-धीरे बाहर निकलते चले गए। मतलब इतना सारा जूस, फल, अंडा, ब्रेड सब बेकार हो गया।
यही है ज़िंदगी। हम सब अपनी भूख से अधिक जुटाने में लगे हैं। हम सभी जानते हैं कि हम इसका इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे। हम जानते हैं कि हमारे बच्चे भी इसे नहीं भोग पाएंगे। पर हम अपनी-अपनी टेबल पर ज़रूरत से अधिक जुटाते हैं। जब हम जुटाते हैं, तो हम इतने अज्ञानी नहीं होते कि हमें नहीं पता कि हम इन्हें पूरी तरह नहीं खा पाएंगे। हम जानते हैं कि हम इन्हें छोड़कर दबे पांव शर्माते हुए रेस्त्रां से बाहर निकल जाएंगे, सब कुछ टेबल पर छोड़कर।
उतना ही जमा कीजिए, जितनी आपको सचमुच ज़रूरत है। ये दुनिया एक रेस्त्रां है। कोई इस रेस्त्रां में सदा के लिए नहीं बैठ सकता। कोई इस रेस्त्रां में लगातार नहीं खा सकता। सबके खाने की सीमा होती है। रेस्त्रां में सबके रहने की भी अवधि तय होती है।
उतना ही लीजिए, जिसमें आपको आनंद आए। उतना ही जुटाइए, जिससे आपकी ज़रूरत पूरी हो सके। बाकी सब यहीं छूट जाता है। चाहे नाश्ता हो या कुछ और।
हम में से बहुत से लोग संसार रूपी रेस्त्रां से बहुत से लोगों को टेबल पर ढेर सारी चीज़ें छोड़कर जाते हुए देखते हैं। पर फिर भी नहीं समझते कि हमें कितनी चीज़ों की ज़रूरत है। हम जानते हैं कि हम भी सब छोड़ जाएंगे, लेकिन जुटाने के चक्कर में जो है, हम उसका स्वाद लेना भी छोड़ देते हैं।
Sanjay Sinha