हिमालयी क्षेत्र के बीच सीमेंट फैक्ट्री स्थापित किया जाना आज से 42 वर्ष पूर्व केवल एक औद्योगिक निर्णय नहीं था, बल्कि यह प्रकृति के सीने पर किया गया सीधा प्रहार था। लोहाघाट की हरी-भरी वादियों, शांत वातावरण और गुलमर्ग सरीखी छमनियाचौड़ की सुंदरता के बीच प्राकृतिक रुप से सपाट भूमि आज भी लोगों की स्मृतियों में टीस बनकर दर्ज है, जहां जबरन सीमेंट फैक्ट्री खड़ी कर दी गई थी। यह वही फैक्ट्री थी, जिसे लंबे समय तक जिला प्रशासन की मौन सहमति और संरक्षण मिलता रहा। आंखें मूंदे बैठे तंत्र ने पहाड़ की संवेदनशीलता को अनदेखा कर दिया था। बाद में जुलाई 1985 में पिथौरागढ़ जिले में एक ऐसे जिलाधिकारी की तैनाती हुई, जिसने पूरे परिदृश्य को बदल दिया। दबंग, ईमानदार और प्रकृति प्रेमी अधिकारी विजैन्दर पाल (आईएएस) के आते ही इस फैक्ट्री के लिए मानो राहु-केतु की दशा शुरू हो गई। चंपावत उस समय पिथौरागढ़ जिले का ही हिस्सा था और यहां फैक्ट्री के खिलाफ जनआंदोलन लगातार तेज होता जा रहा था।
जिलाधिकारी ने इस जनभावनाओं को न केवल समझा, बल्कि उसे प्रशासनिक संबल भी दिया। उन्होंने जिले की सभी वन पंचायतों के सरपंचों का एक ऐतिहासिक सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन में तत्कालीन राज्यपाल बी.डी. पांडे, प्रसिद्ध पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट और इतिहासकार डॉ. शेखर पाठक जैसे तमाम प्रकृति के सजग प्रहरी शामिल हुए। जनआंदोलन के लिए यह सम्मेलन संजीवनी जैसा सिद्ध हुआ। जनता को यह भरोसा मिला कि अब शासन-प्रशासन उनकी पीठ पर खड़ा है, न कि फैक्ट्री मालिकों के साथ। सम्मेलन के बाद जब राज्यपाल और पर्यावरणविदों ने स्वयं सीमेंट फैक्ट्री को देखने की इच्छा जताई, तो जिलाधिकारी उन्हें वहां ले गए। फैक्ट्री परिसर में अवैध रूप से बनाए गए गेट को देखकर जिलाधिकारी का संयम टूट गया। गेट हटाने का आदेश दिया गया, लेकिन वहां तैनात व्यक्ति ने पहले की तरह दबंगई दिखाने की कोशिश की। उसी क्षण जिलाधिकारी ने यह निर्णय लिया, जो उन्हें इतिहास में अलग पहचान देता है।
वे स्वयं पास खड़े पीडब्ल्यूडी के ट्रक में बैठे और अवैध गेट को तुड़वा दिया। यह घटना जंगल की आग की तरह पूरे क्षेत्र में फैल गई। आंदोलनकारियों का मनोबल कई गुना बढ़ गया और फैक्ट्री के बंद होने की घड़ी नजदीक आती दिखाई देने लगी। हालांकि, इसके साथ ही राज्य स्तर पर बैठे कुछ प्रशासनिक और औद्योगिक गठजोड़ इस ईमानदार अधिकारी को हटाने की साजिशों में भी सक्रिय हो गए। बावजूद इसके, जिलाधिकारी का प्रकृति और संस्कृति बचाने का संकल्प और मजबूत होता चला गया। पर्यावरण संरक्षण को लेकर जिलाधिकारी की यह भूमिका राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चित हुई। देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में उनके कार्यों पर लेख और रिपोर्ट प्रकाशित हुईं। मात्र एक वर्ष के कार्यकाल में जंगलों से कुल्हाड़ी और बंदूक की आवाज पूरी तरह थम गई।
अवैध कटान रुका, वन्यजीवों को नया जीवन मिला और हिमालय की हरियाली में नई चमक लौट आई। इस अधिकारी का प्रकृति प्रेम केवल प्रशासनिक निर्णयों तक सीमित नहीं था। पिथौरागढ़ प्रवास के दौरान जब उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई, तो उन्होंने उसका नाम एक “नामिक” ग्लेशियर पर रखा। यह उनके हिमालय और प्रकृति के प्रति गहरे लगाव का प्रतीक बन गया। आज भी जब हिमालय, जंगल और जनहित की बात होती है, तो उस जिलाधिकारी का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। एक वर्ष के छोटे से कार्यकाल में उन्होंने साहस, ईमानदारी और संवेदनशील प्रशासन का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया, जिस पर न केवल किताबें लिखी जा सकती हैं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को यह बताया जा सकता है कि जब प्रशासन जनता और प्रकृति के साथ खड़ा हो जाए, तो हिमालयी क्षेत्र की प्रकृति को कोई भी नहीं छेड़ सकता।
